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कोरोना की दहाड़ और चुनावी हुंकार

प्रदीप कुमार दीक्षित

त्योहारों के लिए प्रसिद्ध इस देश में एक नया त्योहार जुड़ा है, वह है चुनाव। आये दिन कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर के चुनाव होते रहते हैं। देश में फिर चुनाव का माहौल बन रहा है। हर मुद्दे पर एक-दूसरे की टांग-खिंचाई करने वाले और कभी एक-दूसरे से सहमत नहीं होने वाले दल कुछ राज्यों में चुनाव करवाने पर सहमत हो गए हैं। किसी निर्दलीय ने भी कोरोना के जोखिम में चुनाव करवाने पर असहमति दर्ज नहीं करवाई है। चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा कर दी है और चुनाव का बिगुल बज गया है।

चुनाव आयोग ने महामारी से बचने के लिए कुछ दिशा-निर्देश दिए हैं। उनका उल्लंघन करने के लिए विभिन्न दल उतावले हो रहे हैं। महामारी की दहाड़ के बीच चुनाव की हुंकार भरी जा रही है।

कैसा भी मौसम हो, कैसी भी विपदा आई हो, किसी भी वायरस का खतरा सिर पर खड़ा हो, इन्हें तो चुनाव लडऩा है। सत्तारूढ़ दल किसी भी तरह सत्ता में टिका रहना चाहता है। कुर्सी में उसकी आत्मा है। सत्ता में रहते हुए उसे हरा ही हरा दिखाई देता है। विपक्षी दल किसी भी तरह सत्ता में आना चाहता है। इसके लिए वह भरपूर दांव-पेच आजमाता रहता है। उसे सत्ता की हरियाली सपने में भी लुभाती रहती है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर विभिन्न मुद्दों पर शब्दों से कुश्ती लडऩे वाले बांके इस मुद्दे पर ‘शीत निष्क्रियता’ की स्थिति में हैं। वाद-विवाद और बयानबाजी के बाद भाषणबाजी का दौर शुरू हो चुका है। दोनों पक्षों की ओर से बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं। मास्क लगाने वाले और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने वाले अल्पसंख्यक रह गये हैं। कोरोना के ओमीक्रोन वेरिएंट के मामले तेजी से बढऩे के बीच चुनावी नारे हवा में गूंजने लगे हैं।

महामारी तो देर-सवेर काबू में आ जाएगी। इसकी कौन परवाह करता है। सत्ता के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। भले ही नेता स्वयं चपेट में आ जाएं, वे वोटर और अपनी जान को जोखिम में डाल कर भी सत्ता का सुख लेना चाहते हैं। और वोटर… उसकी कौन चिंता करता है। सत्य बात तो यह है कि वोटर को स्वयं अपनी चिंता नहीं है, उसे तो बस इस-उस नेता का जय-जयकार करना है। वह मोहरा भर है।

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