संवाद से पटेगी अविश्वास की खाई
राजकुमार सिंह
कृषि सुधार के नाम पर नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा बनाये गये विवादास्पद तीन कृषि कानूनों की एकतरफा वापसी भी हो गयी, लेकिन उनके विरोध में एक साल से आंदोलनरत किसान अभी भी दिल्ली की दहलीज पर डटे हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री ने इन कानूनों की वापसी के लिए गुरु पर्व का विशेष दिन निश्चय ही बहुत सोच-विचार कर चुना होगा। 19 नवंबर को कानून वापसी के ऐलान के बाद शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन 29 नवंबर को संसद के दोनों सदनों में तीन कृषि कानून वापसी संबंधी विधेयक भी पारित हो गया और 30 नवंबर को राष्ट्रपति ने उस पर हस्ताक्षर भी कर दिये। जाहिर है, एक दिसंबर से विवादास्पद कृषि कानून अस्तित्व में नहीं रहे। फिर भला किसान आंदोलन छोड़ कर घर वापसी को तैयार क्यों नहीं हैं? स्वाभाविक ही सरकार और सत्तारूढ़ दल भी यही सवाल पूछ रहे हैं, जिसका जवाब भी किसान नेताओं ने दिया है। किसान नेताओं की मांग है कि विवादास्पद पराली और बिजली कानून वापस लेने के साथ ही एमएसपी संबंधी कानून बनाया जाये तथा आंदोलनकारी किसानों के विरुद्ध दर्ज मुकदमे वापस लेकर इस दौरान मृत किसानों को शहीद का दर्जा देते हुए मुआवजा व एक परिजन को नौकरी दी जाये।
पराली जलाना अपराध नहीं रहा—ऐसा ऐलान केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कर चुके हैं। उसके बाद ही किसानों ने संसद तक ट्रैक्टर कूच टाला था। मानना चाहिए कि यह मुद्दा भी सुलझ ही चुका है, लेकिन एमएसपी कानून पर समिति बनाने की बात करने वाली सरकार बाकी सवालों पर मौन है, और शायद यह मौन ही किसानों की आशंकाओं को बेचैनी में बदल रहा है। कृषि मंत्रालय के पास मृतक आंदोलनकारी किसानों का आंकड़ा न होने जैसे तोमर के बयान माहौल बिगाडऩे में ही मददगार होंगे। अक्सर होता है कि कुछ मांगें मान कर सरकार कुछ के लिए समिति बना देती है तो कुछ मांगें आंदोलनकारी भी छोड़ देते हैं, लेकिन देश का सबसे लंबा (और शांतिपूर्ण भी) आंदोलन बताये जा रहे किसान आंदोलन में ऐसा होता नजर नहीं आ रहा तो उसकी वजहें भी साफ हैं। आंदोलन अक्सर सरकार के किसी फैसले-कदम के विरुद्ध ही होते हैं या फिर किसी मांग को लेकर। पिछले साल अक्तूबर के आसपास किसान आंदोलन मोदी सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की वापसी तथा एमएसपी कानून बनाने की मांग को लेकर शुरू हुआ था। सरकार जिन कृषि कानूनों को कृषि और किसान की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने वाला बता रही थी, वे आंदोलनकारी किसानों को काले तथा उन्हें जमीन पर अधिकार से ही वंचित करने की साजिश नजर आये। इसी बीच बिजली और पराली संबंधी कानून भी विवाद का मुद्दा बने, जिन्हें वापस लेने पर 12 दौर की बातचीत में सरकार की सहमति का दावा अब किसान नेता सार्वजनिक रूप से कर रहे हैं। जाहिर है, एक सशक्त सरकार द्वारा साख का सवाल बने तीन कृषि कानून वापस ले लिये जाने के बावजूद किसानों से तकरार के मुख्य मुद्दे अब एमएसपी कानून, मुकदमे वापसी, मृतक किसानों को शहीद का दर्जा और उनके परिजनों को मदद ही रह गये हैं।
साल भर के आंदोलन और सरकार द्वारा कानून वापसी के बावजूद किसान दिल्ली की दहलीज पर ही डटे हैं तो यह सरकार की रीति-नीति और उससे बने माहौल पर बड़ा सवालिया निशान भी है। किसान तीनों कानूनों की वापसी से कम पर नहीं मानेंगे—यह तो सरकार के साथ 12 दौर की बातचीत में ही स्पष्ट हो गया था, और आखिरी दौर की बातचीत जनवरी में हुई थी। फिर भला कानून वापसी के लिए 19 नवंबर तक इंतजार क्यों किया गया? क्या सरकार आंदोलनकारी किसानों की इच्छा शक्ति और संघर्ष-सामर्थ्य का इम्तिहान ले रही थी? जायज मांगें पूरी करने के लिए भी ऐसे इम्तिहान लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख हरगिज नहीं बढ़ाते। कानून बनाते समय किसानों से चर्चा की जरूरत नहीं समझी गयी। जब उन्होंने विरोध किया तो उसे अनसुना कर दिया गया और जब वे दिल्ली में प्रवेश न दिये जाने पर सीमा पर ही धरने पर बैठ गये तो उनके किसान होने से लेकर आंदोलन के असल मंसूबों तक पर सवाल उठाये गये। जाहिर है, ऐसा आचरण भी लोकतांत्रिक सरकार से अपेक्षित नहीं। अगर खास मंसूबों से प्रेरित आंदोलनकारी किसान ही नहीं थे, तो फिर सरकार ने 12 दौर की बातचीत क्यों की? यह भी कि एक निर्वाचित लोकप्रिय लोकतांत्रिक सरकार के ऐसे आचरण से क्या संदेश गया होगा और उसका स्वाभाविक असर आंदोलनकारी वर्ग पर क्या हुआ होगा?
ये सवाल आज भी बेहद प्रासंगिक इसलिए हैं, क्योंकि कानून वापसी और उसके बावजूद दिल्ली की दहलीज पर जारी किसान आंदोलन इन्हीं अनुत्तरित सवालों का जवाब भी है। दरअसल आंदोलन के जनक और फिर उसे अधिक अडिग बनाने वाले इन सवालों ने देश की सरकार और आंदोलनकारियों के बीच अविश्वास की खाई इतनी चौड़ी कर दी है कि उसे हाल-फिलहाल आसानी से नहीं पाटा जा सकता। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो आसानी से यह कर सकते थे, लेकिन उन्होंने एक बड़ा अवसर तो गंवा ही दिया है। 12 दौर की बेनतीजा बातचीत के बाद ही जनवरी के अंत में मोदी ने कहा था कि वह किसानों से सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर हैं। कहना नहीं होगा कि अगर उन्होंने समय रहते वह दूरी तय कर ली होती तो सरकार और किसानों के बीच अविश्वास की खाई नहीं बढ़ती, और तब 19 नवंबर को एकतरफा कानून वापसी की नौबत भी नहीं आती, और कानून वापसी के बावजूद किसान भी शायद आंदोलन पर नहीं डटे रहते। सत्ता का अक्सर जमीन से संबंध टूट जाता है। फिर भी नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जिस जोड़ी की देश की राजनीतिक नब्ज पर पकड़ बेमिसाल मानी जाती रही है, उससे ऐसे कृषि कानूनों के राजनीतिक नफा-नुकसान के आकलन में इतनी बड़ी और लगातार चूक समझ से परे है।
यह सही है कि मोदी सरकार ने पहले और दूसरे कार्यकाल में कई अप्रत्याशित फैसले लिए हैं। उनमें से तीन तलाक, नागरिकता संशोधन कानून और जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करने वाले फैसलों को देश की दशा-दिशा पर दूरगामी प्रभाव डालने वाला भी माना जाता है। बेशक इन फैसलों के विरुद्ध स्वर उठे, आंदोलन भी हुए, पर परिणाम नहीं बदल पाये। अगर उसी अनुभव से मोदी सरकार में यह अति विश्वास जगा कि कृषि कानूनों का विरोध भी उसी तरह एक दिन मंद पड़ जायेगा, तो निश्चय ही यह किसान की संघर्ष क्षमता का गलत आकलन था। मान लेते हैं कि वह गलत आकलन ही सरकार से एक के बाद एक गलती कराता गया, लेकिन उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से चंद महीने पहले जब यह अहसास हो गया था कि कानून वापसी के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है भाजपा की राजनीतिक जमीन बचाने का, कम से कम तब तो इस काम को रणनीतिक तरीके से अंजाम दिया जाना चाहिए था, जिससे संभावित चुनावी नुकसान की अधिकतम भरपाई हो पाती। समझा जा सकता है कि कोरोना के कहर के बीच मौसम की मार झेलते हुए साल भर से दिल्ली की दहलीज पर आंदोलनरत और अपने सैकड़ों साथियों की जान गंवा देने वाले किसान कानून वापसी भर से फिर से भाजपा समर्थक नहीं बन जायेंगे, लेकिन अगर मोदी स्वयं सीधे संवाद की पहल कर कानून वापसी तथा अन्य मांगों पर समयबद्ध विचार के लिए समिति बनाने का फैसला सुनाते तब निश्चय ही अविश्वास की उस खाई को पाटने में बड़ी मदद मिलती, जो लगातार चौड़ी होती हुई तल्खी में बदलती गयी है।
किसान आंदोलन में विभिन्न वैचारिक-राजनीतिक प्रतिबद्धताओं वाले संगठन-नेता एक बैनर तले आये हैं। कानून वापसी के बाद उनमें मतभेदों को हवा देकर आंदोलन समाप्त नहीं तो कमजोर अवश्य किया जा सकता है, लेकिन उससे भाजपा के राजनीतिक हित सुरक्षित नहीं हो पायेंगे, जिन्हें जबरदस्त नुकसान पहुंचा है। व्यापक राष्ट्रहित में भी जरूरी है कि केंद्र सरकार स्वयं किसानों से सौहार्दपूर्ण संवाद की पहल कर उनकी शेष मांगों पर समयबद्ध विचार प्रक्रिया शुरू करे। नहीं भुलाया जा सकता कि तमाम बदहाली के बावजूद देश की एक-तिहाई आबादी जीवनयापन के लिए कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है, जिसने कोरोना कहर के बीच भी देश की अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण संबल दिया था।