आधार-वोटर कार्ड जोडऩे के पीछे क्या है
अनिल वर्मा
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दो दिन पहले ही चुनाव सुधार वाले विधेयक के ड्राफ्ट को मंजूरी दी है जिसमें आधार को वोटर आईडी कार्ड से जोडऩे की इजाजत दी गई है। बिल के मुताबिक अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने वालों को साल में चार बार पंजीकरण कराने का मौका मिलेगा। हालांकि ऐसा पहली बार हो रहा है। इसके साथ ही रक्षा कर्मचारियों के मतदान के लिए जेंडर न्यूट्रल चुनावी कानून बनाया जाएगा। अब महिला रक्षा कर्मचारी के पति भी उनके स्थान पर मतदान कर सकेंगे। मौजूदा कानून के मुताबिक, पुरुष रक्षा कर्मचारियों की पत्नियां उनके स्थान पर मतदान कर सकती हैं। चुनाव आयोग ने पहले ही पेंडिंग चल रहे चुनाव सुधारों के लिए सरकार को लिखा था। उन प्रस्तावित 40 सुधारों की सूची में पेड न्यूज को अपराध बनाना और एफिडेविट में गलत जानकारी भरने वालों की सजा बढ़ाकर उसमें दो साल की कैद शामिल करना भी थे। यह बिलकुल स्पष्ट है कि सरकार ने बताए गए सुधारों में से अन्य प्रस्तावों को नजरअंदाज करते हुए आधार को वोटर आईडी से लिंक करने को ही तवज्जो दी है।
सरकार की दिलचस्पी
कारण स्पष्ट लग रहा है कि साल 2022 की शुरुआत में पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं। इसे लेकर भी आधार और वोटर आईडी को लिंक करने के लिए सरकार का विशेष आग्रह हो सकता है। चुनाव आयोग, यूआईडीएआई और सरकार ने आधार को वोटर आईडी कार्ड से लिंक करने के पीछे कुछ तर्क दिए हैं। जैसे कि इससे चुनाव प्रक्रिया आसान होगी और इसमें सुधार लाए जा सकेंगे। भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट आधारित मतदान प्रक्रिया लागू करने में चुनाव आयोग को मदद मिलेगी। प्रवासी मतदाताओं को मतदान करने का अवसर मिलेगा और प्रॉक्सी वोटिंग को आसान बनाने के लिए मतदाताओं का सत्यापन करना भी आसान हो जाएगा।
मार्च 2015 में जब एचएस ब्रह्मा मुख्य चुनाव आयुक्त थे, तब चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धिकरण और प्रमाणीकरण कार्यक्रम यानी एनईआरपीएपी नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया था। इसका एक उद्देश्य आधार और वोटर आईडी को लिंक करना भी था। लगभग उसी समय एक जनहित याचिका के तहत सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश पारित किया था कि आधार का इस्तेमाल राज्य द्वारा खाद्यान्न और रसोई बनाने के ईंधन के वितरण की सुविधा प्रदान करने के अलावा किसी और उद्देश्य से न किया जाए। इस आदेश के बाद चुनाव आयोग का वोटर आईडी और आधार को जोडऩे का कार्यक्रम ठंडे बस्ते में चला गया। हालांकि मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट की तरफ से आधार और वोटर आईडी कार्ड को जोडऩे से रोके जाने का फैसला आने के बाद लगभग 55 लाख मतदाता चुनावी प्रक्रिया से बाहर हो गए।
जुलाई 2019 में लगभग 200 प्रबुद्ध नागरिकों ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर अश्विनी कुमार उपाध्याय बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (यूओआई) की दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष पेश उस याचिका को खारिज करने की मांग की थी, जिसमें ई-वोटिंग प्रणाली के तहत फिंगरप्रिंट और फेस बायोमीट्रिक्स इस्तेमाल करने की मांग की गई थी। इसके पीछे पत्र लिखने वालों ने तर्क दिया था कि वोटर आईडी कार्ड से आधार को जोडऩे पर भारतीय संविधान और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत मतदान का जो आधिकार दिया गया है, उसका हनन होगा। पत्र में यह भी दलील दी गई थी कि आधार और वोटर आईडी की लिंकिंग में बहुत अधिक मात्रा में खर्च के बावजूद असली मतदाता की पहचान सुनिश्चित नहीं हो पाएगी। साथ ही, कहा गया था कि मतदाताओं की सूची तैयार करने और मतदाताओं के डेटा एकत्र करने के लिए घर-घर जाकर मतदाताओं का सत्यापन करना सबसे सटीक तरीका है।
यह भी याद रखने की बात है कि आधार और वोटर आईडी कार्ड को जोडऩे से ‘न्यायाधीश केएस पुट्टास्वामी (रिटायर्ड) और एएनआर बनाम यूओआई’ मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन होगा। यह ‘आधार फैसले’ के नाम से प्रसिद्ध है।
दरअसल, आधार के साथ कई तरह की समस्याएं जुड़ी हुई हैं। उंगलियों के निशान और आंखों की पुतली का मिलान न होने, नकली आधार रखने जैसे मामले तो हैं ही। यह आशंका बनी हुई है कि आधार कार्ड होने के बावजूद ग्रामीण और पिछड़े वर्ग को सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाएगा। इसके अलावा जन्म और पहचान के लिए कई बार आधार को स्वीकार नहीं किया जाता है। निजता से जुड़े सवाल भी अपनी जगह कायम हैं। पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल का मसौदा तैयार करने वाली विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्णा (रिटायर्ड) ने अगस्त 2019 में कहा था कि आधार और मतदाता पहचान पत्र को लिंक करने के लिए चुनाव आयोग की तरफ से कानून बनाने का सुझाव बहुत ही खतरनाक कदम है।
लक्ष्य तक कैसे पहुंचें
सरकार ने लगभग 60 लाख एनआरआई को मतदान करने की प्राथमिकता दी है जो मतदान करने के पात्र हैं। लेकिन देश के ही प्रवासी मतदाता जिनकी आबादी लगभग 28.5 करोड़ (कुल पंजीकृत मतदाताओं का 38 प्रतिशत) है, उन्हें उनके काम करने की जगह पर वोट देने का अवसर नहीं मिल पाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘कोई मतदाता न छूटे’ के लक्ष्य को पूरा करने के लिए तकनीकी का इस्तेमाल जरूरी है, लेकिन इसे काफी सावधानीपूर्वक हर तरह से सोच-विचार करके ही अमल में लाया जाना चाहिए। सभी जानते हैं कि पिछले कई वर्षों से ईवीएम या वीवीपैट के इस्तेमाल पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं। ऐसे में सरकार के ताजा कदम को क्या बड़ी ही चतुराई से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लांघकर किनारे से निकलने का एक प्रयास समझा जाए? फिलहाल तो इसका जवाब निर्णयकर्ताओं के ही पास है। पर इतना जरूर स्पष्ट है कि अभी इस पहल को लेकर संदेह, सवाल और अविश्वास मिटे नहीं हैं।