दीपिका अरोड़ा
हाल ही में, दहेज प्रथा के विरुद्ध युवा-जागरूकता के कुछ सराहनीय उदाहरण प्रकाश में आए। प्रथम प्रकरण में क्रेटा गाड़ी की मांग पूर्ण न होने से रुष्ट भावी दूल्हा नियत तिथि पर बारात लेकर न पहुंचा तो हरियाणा में महेंद्रगढ़ जिले के ग्राम आकोदा निवासी नवयुवती ने साहसिक पहल दिखाते हुए, उसके विरुद्ध रिपोर्ट दर्ज करवा दी।
दूसरा मामला पंजाब में, जालंधर के कोहालां गांव से संबद्ध है, जहां अंगूठियों के लेन-देन संबंधी विवाद से आहत दुल्हन ने दहेज लोभियों के साथ विदा होने से इनकार करते हुए, आरोपितों के विरुद्ध बयान दर्ज करवाए। रोहतक के गांव निंदाना में एक किसान के बेटे ने पारिवारिक सदस्यों की मौजूदगी में, बिना दहेज विवाह करके समाज में आदर्श स्थापित किया। दुल्हन की विदाई भी दूल्हे की बाइक पर हुई।
इससे पूर्व भी विभिन्न क्षेत्रों से दहेज के विरुद्ध बिगुल फूंकने संबंधी कुछ समाचार आते रहे हैं। निश्चय ही ये सामाजिक बदलाव के मद्देनजर सुखद संदेश हैं, किंतु दहेज-प्रथा की वर्तमान स्थिति का आकलन किया जाए तो यह एक गंभीर समस्या बनकर समाज की जड़ों में गहरी पैठ बना चुकी है।
दरअसल, दहेज एक जबरन थोपी गई प्रथा है, जिसका हमारे ग्रंथों में कोई उल्लेख नहीं मिलता। चिंता का विषय है, बेटी की विदाई पर आशीर्वाद स्वरूप उपहार भेंट करने की पावन परम्परा आज विद्रूपता के चरम पर है। वर-पक्ष दहेज मांगना अपना अधिकार समझता है, तो वधू-पक्ष के लिए यह समस्या बन गई है।
धनाढ्य वर्ग द्वारा दहेज के रूप में किया गया संपन्नता प्रदर्शन, मध्यवर्गीय परिवारों के लिए विवशता के विष बीज बोकर उन्हें कर्जदार तक बना डालता है। मांग पूरी न होने पर वधू का मानसिक व शारीरिक उत्पीडऩ इसका सर्वाधिक भर्त्सनायोग्य पहलू है। भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय कृत्य में दहेज-प्रबंधन समस्या एक मुख्य कारण रही है।
एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग हर घंटे एक दहेज उत्पीडि़त महिला मृत्यु को प्राप्त होती है। वर्ष 2017 से 2019 के आंकड़ों के तहत दर्ज मामलों में प्रतिवर्ष बढ़ोतरी देखी गई, जो कि वर्ष 2017 में 10189, 2018 में 12826 और 2019 में 13297 रही। दहेज का यह दावानल 2017 में 7466, 2018 में 7167 तथा 2019 में 7115 बेटियों का जीवन निगल गया। दहेज निरोधक कानून-1961’ के अनुसार दहेज लेना-देना, दोनों अपराध हैं। पीडि़त महिला 181 हेल्पलाइन नम्बर पर, पुलिस स्टेशन जाकर अथवा कोर्ट में केस दर्ज करवा सकती है। महिला अधिकारों से जुड़ी गैर-सरकारी संस्थाएं भी केस दर्ज करवाने का अधिकार रखती हैं, जिला अधिकारी ऐसे मामलों का संज्ञान स्वयंमेव ले सकते हैं। 498-ए के तहत आरोप सिद्ध होने पर देय जुर्माने सहित 3 से 5 वर्ष की सजा का प्रावधान है।
दहेज निषेध नियमावली-1985’ के अनुसार वैवाहिक उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखी जाए, जिसमें उपहार, उनका अनुमानित मूल्य, प्रदाता का नाम व प्राप्तकर्ता से संबंध का संक्षिप्त विवरण शामिल हो। यद्यपि दहेज प्रथा उन्मूलन हेतु अनेक नियम व कानून लागू किए गए, तथापि व्यावहारिक रूप में इनका नियमन संभव नहीं हो पाया। वर्ष 1997 की एक अनुमानित रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष 5,000 महिलाएं दहेज हत्या का शिकार होती हैं। 2019 में महिलाओं के विरुद्ध कुल 4,05,861 आपराधिक मामलों में 30 प्रतिशत अपराध ससुरालपक्ष द्वारा किए गए।
‘दुल्हन ही दहेज है’’ के आदर्श नारे को झुठलाती लोमहर्षक घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि यथार्थ में लोलुप मानसिकता के लिए दहेज ही दुल्हन’ है। कहीं अयोग्य वर-वरण में अर्थाभाव कारण रहा तो कहीं योग्यता महंगे तराजू में तुल गई। इस कुप्रथा में वे अभिभावक बराबर के भागीदार हैं जो बेटी के सुखद भविष्य की परिकल्पना में यह भूल जाते हैं कि विवाह एक पवित्र बंधन है, जिसमें मोल-तोल की कोई गुंजाइश नहीं। योग्यता, स्वभाव, संस्कार तथा पारस्परिक सामंजस्य ही सुखद दाम्पत्य का आधार है, न कि भौतिकता। बेटियों के लिए दहेज का जुगाड़ करने की अपेक्षा उसे शिक्षित, संस्कारी, सक्षम व आत्मनिर्भर बनाएं ताकि वह सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध कर सके। भूलकर भी उसे दहेज की ज्वाला में न झोंकें, क्या मालूम उसका अस्तित्व ही जलकर राख हो जाए। समुचित पालन-पोषण के माध्यम से बेटों को सुयोग्य, स्वाभिमानी व स्वाबलंबी बनाएं; बिकाऊ वस्तु अथवा भिखारी नहीं। कन्या के गुणों को अधिमान दें, न
स्वयं व्यापारी बनें और न ही अपनी संतान को इस निंदनीय सौदेबाजी में संलिप्त होने दें।
दहेज रूपी कोढ़ का निराकरण समाज, व्यवस्था व सरकारों के समग्र योगदान से ही संभव है। कानून का कड़ाई से पालन हो, आरोपियों को दंड मिले एवं किसी भी स्तर पर कानून का दुरुपयोग न होने पाए। इसके लिए व्यवस्था की कर्तव्यनिष्ठा जितनी महत्वपूर्ण है, उससे भी कहीं आवश्यक है युवाओं का दृढ़संकल्प होना।