पदम डॉ0 भारत भूषण त्यागी
प्राकृतिक खेती की मौलिक अवधारणा भारतीय संस्कृति से प्रेरित है। संस्कृति का तात्पर्य मानव में संस्कार पूर्वक स्वीकृतियों के होने से है अर्थात मानव के द्वारा प्रकृति की हर वास्तविकता को जैसा है वैसा ही समझा और स्वीकारा जाये। यही प्राकृतिक खेती का मूल मंत्र है। प्राकृतिक खेती प्रत्येक मानव के जीने की आवश्यकता है। व्यवस्था के रूप में मानव और प्रकृति में गहरा संबंध है जिसे समझना और पूरकतापूर्वक निर्वाह होना ही प्राकृतिक खेती है। आज प्राकृतिक खेती की आवश्यकता इसलिए भी महत्वपूर्ण और अनिवार्य है कि प्रचलित आधुनिक खेती के कारण स्वास्थ्य, पर्यावरण, आर्थिक असंतुलन व कृषि के प्रति बढ़ती उदासीनता जैसी चुनौतियां तेजी से उभर रही हैं वर्तमान भारत सरकार ने जिस प्रकार आत्मनिर्भर भारत, कृषक सशक्तिकरण एवं किसानों की आमदनी दोगुना करने की दिशा में आवाहन किया है उसके लिए सही समझ के साथ प्राकृतिक खेती एक सार्थक विकल्प है। यह कोई आदर्शवाद नहीं बल्कि प्रकृति के साथ जीने की वास्तविकता है।
खेती में हरित क्रांति से पहले जो समस्याएं थीं आज वो उससे भी ज्यादा विकराल रूप में है इसलिए समीक्षा पूर्वक समस्या के कारण को ठीक-ठाक पहचाना जाए। एक कृषक होने के नाते सन 1987 में अपनी खेती का आर्थिक विश्लेषण किया, समस्या यह थी कि खेती का उत्पादन तो बढ़ रहा है लेकिन किसान की आमदनी नहीं बढ़ रही है। एक वर्ष की जांच में पाया कि खेती की सभी लागत, जुताई, सिंचाई, खाद, बीज, दवाई पर बाजार का कब्जा है। उत्पादन की बिक्री और कीमत पर भी बाजार का अधिकार है। प्रोसेसिंग व मूल्य संवर्धन भी बाजार के अधिकार में है। किसान की न कोई परिभाषा है न उसके पास कोई अधिकार है । आय बढ़ाने का कोई अवसर भी किसान के पास नहीं है। इस हरित क्रांति को खेती का बाजारीकरण भी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आज इस आर्थिक असंतुलन को दूर करने के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की दृष्टि से भारत सरकार प्राकृतिक खेती को अपनाये जाने की ओर प्रयासरत है। यह सराहनीय एवं सम्मानजनक पहल है। इसके लिए सतर्कता की विशेष आवश्यकता है। सफलता के लिए सोच में परिवर्तन होना प्राथमिकता है। केवल नाम और तरीके बदलने से कुछ होगा नहीं।
प्राकृतिक खेती के लिए प्राकृतिक उत्पादन व्यवस्था केंद्रित सोच की आवश्यकता है। जिससे गाय के साथ-साथ अन्य सभी प्राकृतिक वस्तुओं की सांझा भूमिका है। कोई एक वस्तु विशेष नहीं है। प्रकृति का मूल सूत्र ही सह-अस्तित्व है। इसलिए देश में कृषि अनुसंधान, शिक्षा, शोध, तकनीकी, विज्ञान, नीति प्रौद्योगिकी आदि प्राकृतिक व्यवस्था केंद्रित हो। परिस्थितियों, घटनाओं, समस्याओं व लाभ केंद्रित विचार धाराओं के कारण ही कृषि तंत्र अधूरा है
प्राकृतिक खेती में प्रयोग रूप में यह देखा गया है कि प्राकृतिक उत्पादन व्यवस्था का स्वरूप पूरकता, विविधता, एवं नैसर्गिक संतुलन पूर्वक धरती की सतह पर निश्चित घनत्व में क्रियाशील है। जिससे एक ही खेत में अनेक फसलें साथ-साथ लगाये जाने से जो उत्पादन प्राप्त होता है वह मात्रा, गुणवत्ता एवं विविधता में एकल फसल प्रणाली से बहुत ज्यादा है। साथ ही भूमि की उर्वरता भी तेजी से बढ़ती है। विविध फसलों के अवशेष भूमि को मिलने से जीवाश्म कार्बन एवं पर्याप्त जीवाणु तंत्र समृद्ध रहता है। ताप- दाब – नमी का संतुलन बने रहने से कीड़े बीमारियों का नियंत्रण होना देखा गया है। बाहरी लागतों की निर्भरता नहीं के बराबर होती है।
उत्पादन वृद्धि से आय वृद्धि हेतु प्राकृतिक खेती का व्यावसायिक प्रबंधन होना आवश्यक है अर्थात खेती में उत्पादन के साथ-साथ गुणवत्ता प्रमाणीकरण, प्रसंस्करण एवं बिक्री हेतु समन्वित कार्य योजना पूर्वक प्राकृतिक खेती की जाए।
प्राकृतिक खेती को सही समझ एवं श्रम नियोजन पूर्वक व्यावसायिक कार्य योजना के रूप में कृषक उत्पादन संगठन प्रारूप में चलाया जाना ग्रामीण स्तर पर आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए प्रभावी आधार हैं व खेती के लिए समाधानात्मक विकल्प है।