विश्वनाथ सचदेव
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में गुरुग्रंथ साहिब के ‘बेअदबी’ का मामला निश्चित रूप से गंभीर है। सच तो यह है कि किसी भी धर्म-ग्रंथ का अपमान, चाहे वह गुरु-ग्रंथ साहिब हों या गीता या बाइबिल या कुरान, किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। किसी भी धर्म-ग्रंथ का अपमान करने वाले को उसके किये की उचित सज़ा मिलनी ही चाहिए। हमारी दंड-संहिता में इस अपराध के लिए सज़ा निर्धारित है, उसे और भी कड़ा किये जाने की आवश्यकता हो सकती है। वस्तुत: इसकी मांग भी की जा रही है और इस संदर्भ में शीघ्र ही उचित कार्रवाई की जानी चाहिए।
स्वर्ण-मंदिर में हुई अवमानना की इस घटना के बाद सिख-समाज में ही नहीं, सारे देश में धार्मिक सद्भाव के माहौल को बिगाडऩे के ‘षड्यंत्र’ के खिलाफ आवाज़ उठ रही है। इस घटना के तत्काल बाद कपूरथला के एक गुरुद्वारे में ‘निशान साहिब’ की अवमानना का मामला भी सामने आया है। इस तरह की घटनाएं किसी षड्यंत्र को तो पैदा करती ही हैं। यह षड्यंत्र का संदेह सीमा-पार से भी संचालित हो सकता है और देश के भीतर भी राष्ट्र-विरोधी तत्वों का हाथ होने से इनकार नहीं किया जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां ऐसे किसी षड्यंत्र का पर्दाफाश जल्दी ही कर सकेंगी। पर ऐसी घटनाओं के संदर्भ में निकट अतीत के उदाहरण यह भी बताते हैं कि अक्सर अपराधी बच निकलने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में संबंधित समाज का गुस्सा समझ में आता है। अमृतसर की इस घोर निंदनीय घटना के बाद राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया भी समझी जा सकती है। हर राजनीतिक दल ने इस कांड की कठोर शब्दों में निंदा की है और अपराधी को कठोरतम सज़ा देने की मांग भी की है। राजनीतिक दलों की इस प्रतिक्रिया को कुछ ही सप्ताह बाद होने वाले पंजाब के चुनावों से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। एक होड़-सी लगी है राजनीतिक दलों में कठोर भर्त्सना करने की। बहरहाल, कारण कुछ भी रहे हों, धार्मिक ग्रंथों की अवमानना की किसी भी घटना को हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह मुद्दा किसी भी धार्मिक भावनाओं को आहत करने का ही नहीं है, देश के धार्मिक सौहार्द के ताने-बाने को कमज़ोर करने के षड्यंत्र का भी है। इसलिए, गुरु-ग्रंथ साहब की अवमानना की जितनी भी निंदा की जाये, कम है। और इसीलिए यह भी ज़रूरी है कि अपराधियों को जल्दी से जल्दी बेनकाब करके उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये।
लेकिन, सवाल कथित अपराधियों को दे दी गयी सज़ा का भी है। स्वर्ण मंदिर में पवित्र गुरु-ग्रंथ साहिब की बेअदबी करने वाले व्यक्ति को उत्तेजित और आहत भीड़ ने पीट-पीटकर मार दिया है। यही कपूरथला के कथित अपराधी के साथ भी किया गया है। ये दोनों अभियुक्त यदि पकड़े जा सकते तो किसी षड्यंत्र का पता लगाया जाना आसान होता। इसलिए भी, और कानून-व्यवस्था की दृष्टि से भी, यह सवाल तो उठता ही है कि भीड़ ने जो कुछ किया, क्या वह उचित था? सवाल यह भी उठता है कि इस तरह के भीड़-तंत्र की निंदा न करके क्या हमारे राजनीतिक दलों ने कुल मिलाकर कानून के शासन की अवहेलना नहीं की है? यह रेखांकित किया जाना महत्वपूर्ण है कि किसी भी राजनीतिक दल ने भीड़ द्वारा कानून हाथ में लिये जाने की भर्त्सना तो छोडि़ए, आलोचना तक नहीं की है। आखिर क्यों?
राजनीतिक दलों के इस व्यवहार का एक कारण तो यह समझ में आता है कि शायद वे चुनावी-राजनीति के नफे-नुकसान को देखकर इस बारे में चुप रहे हों। अमृतसर और कपूरथला के कांड गुरुद्वारों से जुड़े हैं, इसलिए सिख समुदाय का समर्थन पाने और सिखों के प्रति हमदर्दी जताने का मामला भी हो सकता है। लेकिन ऐसे किसी भी कांड की घोर भर्त्सना करने के बाद कानून के शासन की बात सोचना भी ज़रूरी होना चाहिए।
यूं तो साम्प्रदायिकता फैलाने वाले तत्व अक्सर सक्रिय दिख जाते हैं। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों और गिरजाघरों को अपवित्र करने की खतरनाक कोशिशें देश में होती रही हैं। राजनीतिक लाभ उठाने के लिए भी साम्प्रदायिकता की आग फैलाने वाले बाज़ नहीं आते। इस संदर्भ में कथित अपराधियों को पीट-पीट कर मार देने की घटनाएं भी पिछले एक अर्से से सामने आती रही हैं। इस तरह के कृत्यों में लिप्त लोग अक्सर इस तरह के तर्क भी देते हैं कि कानून का रास्ता बहुत लंबा है, और प्रक्रिया बहुत धीमी। आहत भावनाओं और उत्तेजनाओं की दुहाई भी अक्सर दी जाती है। लेकिन, इस सबके बावजूद यह सवाल तो उठना ही चाहिए कि हम कानून के शासन में विश्वास करते हैं या नहीं? न्याय होना चाहिए यह सही है, पर न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। कानून के शासन में विश्वास करने वाली व्यवस्था में भीड़ की अराजकता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी सिद्धांत का तकाज़ा है कि अमृतसर या कपूरथला के आरोपियों को पुलिस के हवाले किया जाना चाहिए था। आरोपियों ने जो कुछ किया उसका समर्थन किसी भी कीमत पर नहीं किया जा सकता, कोई करेगा भी नहीं। पर भीड़ ने जो कुछ किया उसे अनदेखा करने का मतलब भी एक तरह की अराजकता को स्वीकार करना ही होगा। हमारे राजनीतिक दल, राजनेता इस अनदेखी के अपराधी हैं।
पिछले एक अर्से से कानून पर भीड़ तंत्र के हावी होने की कई घटनाएं हमने देखी हैं। कभी गोवंश की हत्या और तस्करी के नाम पर भीड़ कानून को अपने हाथ में ले लेती है और कभी हमारे भाई इस नृशंसता के शिकार हो जाते हैं। कभी कोई चूडिय़ां पहनाने वाला बच्चा चोर मान लिया जाता है और कभी जानवर चुराने के संदेह में कोई व्यक्ति भीड़ की हिंसा का शिकार हो जाता है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले साल, यानी सन् 2020 में, देश में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार देने की 23 घटनाएं हुई थीं, सन् 2019 में ऐसे 107 मामले सामने आये थे।
सवाल सिर्फ यह नहीं है कि इन मामलों में दोषी को सज़ा मिली या नहीं, सवाल यह भी है कि इस तरह के भीड़-तंत्र को किसी भी प्रकार की स्वीकार्यता क्यों मिले? भीड़ का कानून को अपने हाथ में लिया जाना किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसी भीड़ के काम को ग़लत न बताना भी किसी अपराध से कम नहीं है। आहत भावनाओं के मामले में किसी का उत्तेजित होना एक सीमा तक ही समझा जा सकता है। भावनाओं के नाम पर कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। स्वर्ण मंदिर और कपूरथला के गुरुद्वारों में जो ‘बेअदबी’ हुई उसकी तीव्रतम भर्त्सना करते हुए कानून को हाथ में लेने की खतरनाक प्रवृत्ति की भर्त्सना भी ज़रूरी है। दोनों की तुलना करना भी सही नहीं है, पर एक संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास करने वाले सभ्य समाज में किसी भी प्रकार की अराजकता को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।